Natasha

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राजा की रानी

रात को अखाड़े में शायद थे?”


“हाँ, था।”

“ओ:!”

नीरवता में ही कुछ क्षण कटे। पैर बढ़ाने की कोशिश करते ही उस आदमी ने कहा, “आप तो वैष्णव नहीं हैं, भले आदमी हैं- अखाड़े में आपको रहने दिया?”

मैंने कहा, “यह तो वे ही जानें। उन्हीं से पूछिए।”

“ओ:, शायद कमललता ने रहने के लिए कहा होगा?”

“हाँ।”

“ओ:, जानते हैं उसकी असली नाम क्या है? उषांगिनी। मकान सिलहट में है किन्तु दिखती है कलकत्ते जैसी। मेरा घर भी सिलहट में है। गाँव का नाम है महमूदपुर। उसके स्वभाव-चरित्र के बारे में कुछ सुनेंगे?”

मैंने कहा, “नहीं।” पर उस आदमी के हाव-भाव देखकर इस बार सचमुच ही विस्मित हो उठा। प्रश्न किया, “कमललता के साथ आपका कोई सम्बन्ध है?”

“है क्यों नहीं!”

“वह क्या?”

क्षणभर इधर-उधर कर वह आदमी एकाएक गरज उठा, “क्यों, क्या झूठ है? वह मेरी घरवाली होती है। उसके बाप ने खुद हमारी कण्ठी-बदली की थी। इसके गवाह हैं।”

न जाने क्यों मुझे विश्वास नहीं हुआ। पूछा, “आपकी जाति क्या है?”

“हम द्वादश तेली हैं।”

“और कमललता की?”

प्रत्युत्तर में वह अपनी वह मोटी भौंहों की जोड़ी घृणा से कुंचित कर बोला, “वह कलवार है- उनके पानी से हम पैर भी नहीं धोते। एक बार उसे बुला सकते हैं?”

“नहीं। अखाड़े में सब जा सकते हैं, इच्छा हो तो आप भी जा सकते हैं।” कुछ नाराज होकर वह बोला, “जाऊँगा साहब, जाऊँगा। दरोगा को पैसे खिला दिये हैं, प्यादे साथ लेकर झोंटा पकड़कर बाहर खींच लाऊँगा। बाबाजी के बाबा भी नहीं बचा सकेंगे! साला, रास्कल कहीं का!”

मैं और वाक्य व्यय न करके आगे चलने लगा। वह पीछे से कर्कश कंठ से बोला, “इसमें आपका क्या नुकसान था? जाकर अगर एक बार बुला देते तो क्या शरीर का कुछ क्षय हो जाता? ओह-भले आदमी!”

अब पीछे घूमकर देखने का साहस नहीं हुआ। पीछे कहीं गुस्से को न रोक पाऊँ और इस अति दुर्बल आदमी के शरीर पर हाथ न छोड़ बैठूँ, इस डर से कुछ तेजी के साथ ही मैंने प्रस्थान किया। ऐसा लगने लगा कि वैष्णवी के भाग जाने का हेतु शायद यहीं कहीं सम्बद्ध है।

मन खराब हो गया था। ठाकुरजी के कमरे में न तो खुद गया और न कोई बुलाने ही आया। कमरे के भीतर एक चौकी पर कई- एक वैष्णव ग्रंथावलियाँ बड़े यत्न से रक्खी थीं। उन्हीं में से एक को हाथ में लेकर और प्रदीप को सिरहाने रखकर बिछौने पर लेट गया। वैष्णव-धर्मशास्त्र के अध्यलयन के लिए नहीं, सिर्फ वक्त गुजारने के लिए। बार-बार क्षोभ के साथ सिर्फ एक ही बात का खयाल आने लगा, कमललता जो गयी सो फिर लौटकर नहीं आयी! ठाकुरजी की संध्याय-आरती यथारीति शुरू हुई, उसका मधुर कण्ठ बार-बार कानों में सुनाई पड़ने लगा और घूम-फिरकर यही खयाल मन में आने लगा कि उस वक्त से कमललता ने मेरी कोई खोज-खबर ही नहीं ली! और वह मोटी भौंहों वाला आदमी? क्या उसकी शिकायत में कुछ भी सत्य नहीं है?

और भी एक बात है। गौहर कहाँ है? उसने भी तो आज मेरी कोई खोज खबर नहीं ली। सोचा था कि कुछ दिन- पूँटू के विवाहवाले दिन तक, यहीं गुजार दूँगा, पर अब यह नहीं होगा। शायद कल ही कलकत्ते रवाना हो जाना पड़े।

शनै: शनै: आरती और कीर्तन समाप्त हो गया। कलवाली वही वैष्णवी आकर बड़े यत्न से प्रसाद रख गयी, पर जिसकी राह देख रहा था उसके दर्शन नहीं मिले। बाहर लोगों की बातचीत और आने-जाने की आवाज भी क्रमश: शान्त हो गयी। यह सोचकर कि अब उसके आने की सम्भावना नहीं है, भोजन किया और हाथ-मुँह धोकर दीप बुझा सो गया।

शायद उस वक्त बहुत रात थी, कानों में भनक पड़ी, “नये गुसाईं!”

जागकर उठ बैठा। अन्धकार में खड़ी कमललता आहिस्ता-आहिस्ता बोली, “आयी नहीं, इसलिए शायद मन-ही-मन बहुत दु:खी हो रहे हैं- क्यों नये गुसाईं?”

कहा, “हाँ, दुखी हुआ हूँ।”

क्षणभर के लिए वैष्णवी चुप रही, फिर बोली, “जंगल में वह आदमी तुमसे क्या कह रहा था?”

“तुमने देखा था क्या?”

“हाँ।”

“कह रहा था कि वह तुम्हारा पति है- अर्थात्, तुम्हारे सामाजिक आचारों के मुताबिक तुम्हारी उसकी कंठी-बदल हुई है।”

“तुमने विश्वास किया?”

“नहीं, नहीं किया।”

क्षणभर के लिए फिर मौन रहकर वैष्णवी ने कहा, “उसने मेरे स्वभाव और चरित्र के बारे में कुछ इशारा नहीं किया?”

“किया था।”

“और मेरी जातिका?”

“हाँ, उसका भी।”

वैष्णवी ने कुछ ठहरकर कहा, “सुनोगे मेरे बचपन का इतिहास? शायद तुम्हें घृणा हो जाय।”

“तो रहने दो, मैं नहीं सुनना चाहता।”

“क्यों?”

“उससे क्या फायदा कमललता? तुम मुझे बहुत भली लगी हो। यहाँ से कल चला जाऊँगा और शायद फिर कभी हम लोगों की मुलाकात ही न हो। तब मेरे इस भले लगने को निरर्थक ही नष्ट करने से क्या फायदा होगा, बताओ?”

इस बार वैष्णवी बहुत देर तक मौन रही। यह समझ में न आया कि अन्धकार में चुपचाप खड़ी वह क्या कर रही है। पूछा, “क्या सोच रही हो?”

“सोच रही हूँ कि कल तुम्हें नहीं जाने दूँगी।”

“तो फिर कब जाने दोगी?”

“जाने कभी न दूँगी। पर अब बहुत रात हो गयी, सो जाओ। मसहरी अच्छी तरह से लगी हुई है न?”

“क्या पता, शायद लगी है।”

वैष्णवी ने हँसकर कहा, “शायद लगी है? वाह, खूब हो।” यह कह उसने करीब आकर अन्धकार में ही हाथ बढ़ाकर बिछौने के चारों छोरों की परीक्षा कर ली और कहा, “सोओ गुसाईं, मैं जाती हूँ।” यह कहकर वह दबे पैरों बाहर निकल गयी और बाहर से बहुत ही सावधानी के साथ दरवाजा भी बन्द कर गयी।

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